Mahabharata : के तीन अप्रतिम योद्धाओं के पीछे एक ही महागुरु का हाथ: परशुराम की छाया में भीष्म, कर्ण और द्रोण
Mahabharata: महाभारत की कथा में जब भी सबसे शक्तिशाली,(powerful) सबसे कुशल और सबसे रहस्यमयी योद्धाओं की बात होती है तो तीन नाम सबसे पहले जुबान पर आते हैं – भीष्म पितामह, सूर्यपुत्र कर्ण और आचार्य द्रोण। ये तीनों अलग-अलग परिस्थितियों में जन्मे, अलग-अलग मार्ग पर चले, लेकिन इन तीनों के जीवन की सबसे बड़ी समानता यह थी कि इनका असली युद्ध-कौशल और दिव्य अस्त्र-विद्या एक ही महान गुरु से मिली थी – भृगुनंदन परशुराम। आइए जानते हैं कि कैसे परशुराम ने इन तीनों को वह ज्ञान दिया जो इन्हें अमर योद्धा बना गया।

भीष्म पितामह की कठोर तपस्या और परशुराम की कृपा
गंगा-पुत्र देवव्रत बचपन से ही अद्भुत तेज (Amazing sharpness)के धनी थे। राजा शांतनु ने उन्हें बड़े लाड़-प्यार से पाला, लेकिन जब बात युद्ध-विद्या और दिव्य शस्त्रों की आई तो हस्तिनापुर के किसी भी गुरु में वह क्षमता नहीं थी जो देवव्रत को संतुष्ट कर सके। तब देवव्रत स्वयं कैलाश पर्वत की कंदराओं में पहुंचे और भगवान परशुराम के चरणों में गिर पड़े।
परशुराम ने पहले तो मना किया क्योंकि वे क्षत्रियों को शिक्षा देने से रुष्ट थे, लेकिन देवव्रत की तपस्या, दृढ़ता और ब्रह्मचर्य व्रत देखकर उनका मन पिघल गया। वर्षों तक कठोर प्रशिक्षण चला। परशुराम ने उन्हें प्रलयंकारी ब्रह्मास्त्र, नारायणास्त्र समेत सभी दिव्य शस्त्रों की विधि सिखाई। इतना ही नहीं, युद्ध नीति, रणकौशल और धर्मयुद्ध के सूक्ष्म नियम भी सिखाए। इसी प्रशिक्षण के कारण ही भीष्म कुरुक्षेत्र में दस दिन तक अकेले पांडव सेना को रोक सके। उनकी शरशय्या तक की स्थिति भी परशुराम द्वारा दिए गए इच्छा-मृत्यु वरदान का परिणाम थी।
सूर्यपुत्र कर्ण का छल और परशुराम का कोप-कृपा दोनों
कर्ण का जीवन ही संघर्ष की पर्याय था। द्रोणाचार्य ने उन्हें केवल साधारण शस्त्र-विद्या सिखाई और दिव्यास्त्र देने से स्पष्ट मना कर दिया क्योंकि वे सूत-पुत्र थे। अपमानित कर्ण ने ठान लिया कि वह दुनिया का सबसे बड़ा धनुर्धर बनेगा। वे सीधे परशुराम के आश्रम पहुंचे और स्वयं को ब्राह्मण पुत्र बता दिया।
परशुराम ने बिना संदेह किए उन्हें शिष्य बना लिया और जो शिक्षा अर्जुन को भी नहीं मिली थी, वह सब कर्ण को दे दी – ब्रह्मास्त्र, भर्गवास्त्र, विजय धनुष की विधि, सब कुछ। कर्ण इतने प्रतिभाशाली शिष्य निकले कि परशुराम ने कहा, “तुम मेरे सबसे प्रिय शिष्य हो।” लेकिन एक दिन जब परशुराम कर्ण की जंघा पर सिर रखकर सोए थे और एक कीड़े ने कर्ण की जंघा काट ली, तो कर्ण ने दर्द सहन कर लिया ताकि गुरु की नींद न टूटे। खून बहने पर परशुराम जागे और सत्य जान गए। क्रोधित होकर उन्होंने श्राप दे दिया – “जिस समय तुम्हें सबसे अधिक जरूरत होगी, ये सारी विद्याएँ तुम्हें भूल जाएंगी।”
फिर भी परशुराम की कृपा बनी रही। कर्ण के पास कवच-कुंडल के साथ परशुराम द्वारा दिया गया भर्गवास्त्र था, जिससे वह अभिमन्यु वध के समय तक अजेय बना रहा।
द्रोणाचार्य स्वयं परशुराम के शिष्य थे
लोग अक्सर भूल जाते हैं कि स्वयं द्रोणाचार्य भी परशुराम के शिष्य थे। जब परशुराम ने क्षत्रियों का संहार पूरा करके अपनी सारी दिव्यास्त्र-विद्या दान करने का निश्चय किया तो सबसे पहले द्रोण उनके पास पहुंचे। परशुराम ने द्रोण को सभी दिव्य अस्त्र-शस्त्र दान कर दिए और कहा, “इनका प्रयोग केवल धर्म की रक्षा के लिए करना।”
इसी ज्ञान के बल पर द्रोण ने बाद में कौरव-पांडव दोनों को प्रशिक्षित किया। ब्रह्मास्त्र, ब्रह्मशिर, आग्नेयास्त्र – ये सब द्रोण को परशुराम से ही मिले थे। यही कारण है कि कुरुक्षेत्र में जब द्रोण चक्रव्यूह रचते थे तो कोई तोड़ नहीं पाता था। उनके पुत्र अश्वत्थामा को भी यह विद्या परशुराम की परंपरा से ही मिली।
एक गुरु, तीन शिष्य, तीन अलग किस्मतें
परशुराम के तीनों शिष्यों ने अलग-अलग मार्ग चुना। भीष्म ने आजीवन ब्रह्मचर्य और कुरुवंश की रक्षा का व्रत लिया। कर्ण ने मित्रता और दानशीलता को सबसे ऊपर रखा। द्रोण ने गुरु-दक्षिणा और अपने पुत्र मोह में उलझकर अंततः अधर्म का साथ दिया। लेकिन तीनों के भीतर वह अग्नि जलती रही जो परशुराम ने सुलगाई थी।
कुरुक्षेत्र के मैदान में जब ये तीनों एक-दूसरे के सामने आए तो वह परशुराम की दी हुई विद्या का ही आमने-सामने का युद्ध था। भीष्म दस दिन लड़े, कर्ण सत्रहवें दिन वीरगति को प्राप्त हुए और द्रोण पंद्रहवें दिन धोखे से मारे गए – लेकिन तीनों ने यह सिद्ध कर दिया कि परशुराम का कोई भी शिष्य साधारण नहीं होता।
परशुराम की यह त्रिमूर्ति आज भी हमें सिखाती है कि सच्चा गुरु अपने शिष्य को केवल शस्त्र नहीं, चरित्र भी देता है। चाहे वह चरित्र अंततः कितना भी जटिल क्यों न बन जाए।

