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Ramayana Mythological Story: वनवास का प्रथम पड़ाव, श्रीराम, सीता और लक्ष्मण की पौराणिक यात्रा

Ramayana Mythological Story: भगवान श्रीराम ने धरती पर अवतार लेकर अधर्म के विनाश और धर्म की पुनर्स्थापना का महान दायित्व स्वीकार किया था। इस उद्देश्य की पूर्ति केवल राजसिंहासन The objective can only be achieved through the royal throne पर बैठकर संभव नहीं थी, बल्कि इसके लिए त्याग, तप और संघर्ष का मार्ग अपनाना आवश्यक था। इसी कारण श्रीराम ने पिता महाराज दशरथ की आज्ञा का पालन करते हुए चौदह वर्षों का वनवास सहर्ष स्वीकार किया। इस कठिन यात्रा में माता सीता ने पतिव्रत धर्म निभाते हुए श्रीराम का साथ दिया और छोटे भ्राता लक्ष्मण ने अपनी निष्ठा, सेवा और सुरक्षा का संकल्प लिया। अयोध्या का वैभव त्याग कर तीनों वन की ओर चल पड़े, जहां प्रत्येक कदम पर परीक्षा और अनुभव उनका इंतजार कर रहे थे।

Ramayana mythological story

वन में प्रवेश और सतर्कता का संकल्प

वन में प्रवेश करते समय श्रीराम ने लक्ष्मण को आगे चलने का निर्देश दिया। उनके शब्दों में वन के प्रति सजगता और जिम्मेदारी का भाव स्पष्ट था। उन्होंने लक्ष्मण से कहा कि यह निर्जन वन अनेक संकटों से भरा हो सकता है, इसलिए सभी को आत्मनिर्भर होकर एक-दूसरे की रक्षा करनी होगी। लक्ष्मण धनुष-बाण संभालकर अग्रिम पंक्ति Lakshman, holding his bow and arrows, stood in the front line में चले, उनके पीछे सीता और अंत में स्वयं श्रीराम चलते रहे। यह दृश्य भाईचारे, कर्तव्य और विश्वास का प्रतीक था।

प्रथम रात्रि का अनुभव

दिन भर की कठिन यात्रा के बाद तीनों ने विश्राम के लिए एक वृक्ष A tree for rest के नीचे स्थान चुना। संध्योपासना और वन्य आहार ग्रहण करने के पश्चात रात्रि का आगमन हुआ। वन की नीरवता के बीच हिंसक प्राणियों की आवाजें वातावरण को और गंभीर बना रही थीं। श्रीराम ने लक्ष्मण को पूरी तरह सतर्क रहने का निर्देश दिया, क्योंकि जानकी की सुरक्षा दोनों भाइयों का परम दायित्व थी। यह वनवास की पहली रात थी, जिसने आने वाले संघर्षों की झलक दे दी।

श्रीराम के मन का अंतर्द्वंद्व

रात्रि के सन्नाटे में श्रीराम का मन अयोध्या की ओर चला गया। उन्होंने लक्ष्मण से पिता दशरथ He asked Lakshman about his father Dasharatha की अवस्था, माता कौसल्या का दुख और कैकेयी की महत्वाकांक्षा का स्मरण करते हुए अपने हृदय की पीड़ा प्रकट की। धर्म और मर्यादा के बंधन में बंधे श्रीराम के मन में क्षणिक आक्रोश उठा, किंतु उनका विवेक और धर्मबोध उन्हें अनुचित मार्ग पर जाने से रोकता रहा। यह प्रसंग दर्शाता है कि श्रीराम केवल वीर योद्धा ही नहीं, बल्कि संवेदनशील और आदर्श मानव भी थे।

लक्ष्मण का धैर्यपूर्ण उपदेश

जब लक्ष्मण ने श्रीराम को शोकग्रस्त देखा, तो उन्होंने उन्हें धैर्य बंधाया। लक्ष्मण के शब्दों में विश्वास और आशा झलकती थी। उन्होंने कहा कि संकट चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, समय के साथ उसका समाधान अवश्य होता है। वनवास की अवधि पूर्ण होने पर अयोध्या लौटने की आशा ने वातावरण को फिर से सकारात्मक बना दिया। इसके पश्चात श्रीराम विश्राम करने लगे और लक्ष्मण पूरी रात पहरा देते रहे।

प्रयागराज और महर्षि भरद्वाज का आश्रम

प्रातःकाल तीनों ने संध्यावंदन के बाद गंगा-यमुना संगम Ganga-Yamuna confluence after evening prayers की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में वन के फल-फूल उनकी क्षुधा शांत करते रहे। संगम के समीप पहुंचते ही वातावरण की पवित्रता और यज्ञ की सुगंध ने संकेत दिया कि वे महर्षि भरद्वाज के आश्रम के निकट हैं। आश्रम में पहुंचकर श्रीराम ने मुनि को प्रणाम किया और अपने वनवास का उद्देश्य स्पष्ट किया।

आश्रम में सत्कार और निवास का निर्णय

महर्षि भरद्वाज ने अतिथियों का स्नेहपूर्वक स्वागत The guests were warmly welcomed किया, स्नान और भोजन की व्यवस्था की तथा उन्हें अपने आश्रम में निवास का आग्रह किया। किंतु श्रीराम ने विनम्रता से यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। उन्होंने तर्क दिया कि आश्रम की प्रसिद्धि के कारण वहां जनसमूह का आगमन होगा, जिससे तपस्वी जीवन में बाधा उत्पन्न होगी। यह निर्णय श्रीराम की दूरदर्शिता और अनुशासन को दर्शाता है।

चित्रकूट जाने की प्रेरणा

श्रीराम की बातों से संतुष्ट होकर महर्षि भरद्वाज Being satisfied, Maharishi Bharadwaj ने उन्हें चित्रकूट में निवास करने की सलाह दी। उन्होंने बताया कि यह स्थान रमणीक है, अनेक ऋषियों की तपोभूमि रहा है और वहां प्राकृतिक सौंदर्य के साथ आध्यात्मिक शांति भी प्राप्त होती है। इस प्रकार वनवास का पहला चरण पूर्ण हुआ और आगे की यात्रा के लिए मार्ग प्रशस्त हुआ।

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