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The divine story of Ekambareswarar Temple : पृथ्वी तत्व का पावन शिवधाम

The divine story of Ekambareswarar Temple : तमिलनाडु के प्राचीन नगर कांचीपुरम में स्थित एकम्बरेश्वर मंदिर भारतीय संस्कृति, आस्था और पौराणिक परंपराओं का जीवंत प्रतीक है। यह मंदिर भगवान शिव के उन पवित्र स्थलों में से एक है, जहां शिव की आराधना पृथ्वी तत्व के रूप में की जाती है। यहां स्थापित शिवलिंग को बालुका लिंग कहा जाता है, जिसका निर्माण रेत से हुआ माना जाता है। यह मंदिर न केवल अपनी धार्मिक मान्यता के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि इसकी ऐतिहासिक, वास्तुकला और आध्यात्मिक विशेषताएं भी इसे विशिष्ट बनाती हैं।

The divine story of ekambareswarar temple

मंदिर का ऐतिहासिक महत्व
एकम्बरेश्वर मंदिर का इतिहास लगभग एक हजार वर्ष पुराना माना जाता है। इसका प्रारंभिक निर्माण चोल वंश के शासकों द्वारा नौवीं शताब्दी में कराया गया था। इसके बाद विजयनगर साम्राज्य के शासकों ने मंदिर के विस्तार और सौंदर्यीकरण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। मंदिर परिसर में बने विशाल गोपुरम, विशेष रूप से दक्षिण दिशा का गोपुरम, इसकी भव्यता को दर्शाते हैं। यह गोपुरम भारत के सबसे ऊंचे मंदिर द्वारों में गिना जाता है और दूर से ही श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है।

पृथ्वी तत्व और पांच भूत स्थल
हिंदू मान्यता के अनुसार भगवान शिव के पांच प्रमुख स्थल पांच तत्वों से जुड़े हैं, जिन्हें पंच भूत स्थल कहा जाता है। एकम्बरेश्वर मंदिर पृथ्वी तत्व का प्रतिनिधित्व करता है। यहां शिवलिंग की पूजा मिट्टी और रेत से बने स्वरूप में की जाती है, जो स्थिरता, सहनशीलता और सृजन का प्रतीक है। इस कारण यह मंदिर शैव परंपरा में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

प्राचीन आम्रवृक्ष और उससे जुड़ी कथा
मंदिर परिसर में स्थित विशाल आम का पेड़ इस स्थान की सबसे अनोखी विशेषताओं में से एक है। मान्यता है कि यह आम का पेड़ हजारों वर्षों से यहां विद्यमान है। कहा जाता है कि इस पेड़ की चार प्रमुख शाखाओं पर अलग-अलग प्रकार के आम लगते हैं, जिनका स्वाद भी भिन्न होता है। यह पेड़ केवल एक प्राकृतिक धरोहर नहीं, बल्कि एक पौराणिक कथा का साक्षी भी है।

पौराणिक कथा के अनुसार माता पार्वती ने इसी आम के पेड़ के नीचे तपस्या की थी। वेगवती नदी के तट पर स्थित इस स्थान पर माता पार्वती ने अपने पापों से मुक्ति और भगवान शिव से एकाकार होने के लिए कठोर साधना की। उनकी भक्ति की परीक्षा लेने के लिए भगवान शिव ने उन्हें अग्नि की कठिन परीक्षा में डाला। उस समय माता पार्वती ने भगवान विष्णु से सहायता की प्रार्थना की, तब चंद्रमा की शीतल किरणों से अग्नि की तीव्रता शांत हुई। यह घटना माता पार्वती की अटूट श्रद्धा और धैर्य को दर्शाती है।

गंगा से जुड़ा प्रसंग
कथा के अनुसार, भगवान शिव ने माता पार्वती की तपस्या को परखने के लिए गंगा नदी को वेगवती के रूप में भेजा, ताकि उनकी साधना भंग हो सके। माता पार्वती ने गंगा से विनम्रतापूर्वक निवेदन किया कि वे दोनों बहनें हैं और उनकी तपस्या में बाधा न डालें। माता के इस अनुरोध से गंगा का वेग शांत हो गया और उनकी साधना सुरक्षित रही। यह प्रसंग करुणा, विनम्रता और आत्मबल का प्रतीक माना जाता है।

बालुका लिंग की स्थापना
अपनी तपस्या के दौरान माता पार्वती ने रेत से शिवलिंग का निर्माण कर भगवान शिव की पूजा की। यही शिवलिंग आगे चलकर बालुका लिंग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस लिंग की पूजा विशेष विधि से की जाती है, क्योंकि इसे जल से अभिषेक नहीं किया जाता, बल्कि केवल हल्के स्पर्श और आभूषणों से सजाया जाता है। यह परंपरा आज भी श्रद्धा के साथ निभाई जाती है।

शिव-पार्वती विवाह की कथा
एक अन्य मान्यता के अनुसार, तपस्या के समय भगवान शिव ने वेगवती नदी में प्रचंड बाढ़ उत्पन्न कर दी, जिससे बालुका लिंग के बह जाने का खतरा उत्पन्न हो गया। तब माता पार्वती ने शिवलिंग को अपने आलिंगन में लेकर उसकी रक्षा की। इस दृश्य से भगवान शिव अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने माता पार्वती को दर्शन दिए। माता ने उनसे विवाह का वरदान मांगा, जिसे भगवान शिव ने स्वीकार किया। इसी स्थान पर शिव और पार्वती के पवित्र मिलन की कथा प्रचलित हुई।

ब्रह्मोत्सव और शिवविवाह उत्सव
इस पौराणिक कथा की स्मृति में प्रतिवर्ष भव्य ब्रह्मोत्सव का आयोजन किया जाता है। इस अवसर पर एकम्बरेश्वर मंदिर और समीप स्थित कामाक्षी मंदिर से प्रतिमाएं पवित्र आम्रवृक्ष के नीचे लाई जाती हैं। यहां शिव-पार्वती विवाह का प्रतीकात्मक आयोजन किया जाता है, जिसे शिवविवाह कल्याणोत्सव कहा जाता है। इस उत्सव में दूर-दूर से श्रद्धालु भाग लेने आते हैं और वातावरण भक्ति से परिपूर्ण हो जाता है।

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